सन 1692 में धान की खेती – उस जमाने की बात 

नमस्कार किसान भाइयों भारत में खेती-बाड़ी का इतिहास तो पुराना है जितना गंगा का पानी। और धान की खेती? वो तो जैसे हमारे देश की रगों में बस्ती है। आज हम ले चलते हैं आपको सन 1692 के दौर में, जब न ट्रैक्टर थे, न केमिकल वाली खाद, न ही कोई हाइब्रिड बीज। फिर भी हमारे किसान भाई अपनी मेहनत और पुरखों के ज्ञान से हरे-भरे खेत उगा लेते थे। आइए, उस जमाने की धान की खेती की कहानी सुनते हैं, 

उस जमाने का माहौल

सन 1692 में भारत में मुगल बादशाह औरंगजेब का राज था। गाँवों में जिंदगी खेतों के इर्द-गिर्द घूमती थी। लेकिन किसानों की जिंदगी आसान नहीं थी। जमींदार और साहूकार लगान वसूलते थे, और फसल का बड़ा हिस्सा कर में चला जाता था। फिर भी, किसान अपने खेतों में दिन-रात मेहनत करते और धान के खेत लहलहाते थे।

खेती पूरी तरह बारिश, नहरों और तालाबों पर टिकी थी। उस वक्त कोई ट्यूबवेल या बोरिंग नहीं थी, तो प्रकृति का साथ जरूरी था। अगर मानसून अच्छा हुआ, तो खेत हरे-भरे, और अगर सूखा पड़ा, तो किसान की कमर टूट जाती।

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धान की देसी किस्में

भारत में सदियों से धान की कई देसी किस्में उगाई जाती रही हैं, जो न केवल स्वाद और पोषण में बेहतरीन हैं बल्कि जलवायु और मिट्टी की विविधता को भी सहन करने में सक्षम हैं। इन देसी किस्मों में ‘काली मूसली’, ‘चिन्ना पोन्नी’, ‘माटा भट्टा’, ‘सादा गोविंद भोग’, ‘मणिपुरी ब्लैक राइस’ और ‘किचड़ी समा’ जैसी किस्में शामिल हैं, जो पारंपरिक खेती की पहचान हैं। ये किस्में रासायनिक खाद और कीटनाशकों के बिना भी अच्छी उपज देती हैं, जिससे जैविक खेती को बढ़ावा मिलता है।

इन देसी धानों का स्वाद, सुगंध और स्वास्थ्य लाभ बाजार में इनकी मांग को बढ़ाते हैं। खासतौर पर ‘ब्लैक राइस’ में एंटीऑक्सीडेंट और पोषण तत्व अधिक होते हैं, जो मधुमेह और हृदय रोग के लिए फायदेमंद माने जाते हैं। इसके अलावा, देसी किस्मों की खेती से किसानों को बीजों पर निर्भरता कम होती है, और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को झेलने की क्षमता भी बढ़ती है। आज जब आधुनिक किस्मों का बोलबाला है, तब देसी धानों को फिर से पहचान दिलाना समय की ज़रूरत बन गई है।

  • काला नमक: पूर्वी यूपी की ये किस्म अपनी खुशबू के लिए मशहूर थी।
  • चिन्ना: साउथ में छोटे-छोटे पौधों वाली ये किस्म खूब बोई जाती थी।
  • राजा भोग: बंगाल के खेतों में इसकी धूम थी, स्वाद में लाजवाब।
  • साठी: 60-70 दिन में पकने वाली ये किस्म जल्दी फसल चाहिए तो काम आती थी।

किसान इन बीजों को बरसों से बचा-बचाकर रखते थे। हर साल फसल से कुछ बीज अगले सीजन के लिए संभाल लिया जाता।

सन 1692 में धान की खेती – उस जमाने की बात

बुआई का देसी जुगाड़

भारत के गांवों में किसान अपनी सूझबूझ और अनुभव से खेती के ऐसे देसी जुगाड़ अपनाते हैं जो ना सिर्फ लागत कम करते हैं, बल्कि मेहनत भी बचाते हैं। बुआई का देसी जुगाड़ इसका एक बेहतरीन उदाहरण है। परंपरागत तरीके से जहां हाथ से बीज बोना समय और श्रम दोनों लेता है, वहीं किसान अब साइकिल की चेन, खाली डिब्बे, पुराने पाइप, लोहे की रॉड और बैलगाड़ी के पहिए जैसे कबाड़ से बीज बोने की मशीनें बना लेते हैं।

इन देसी जुगाड़ों की सबसे बड़ी खासियत ये है कि ये कम लागत में तैयार हो जाते हैं और बिजली या डीज़ल की जरूरत नहीं होती। किसान इनसे एक समान दूरी पर बीज बो सकते हैं जिससे फसल अच्छी तरह उगती है। इसके अलावा, ये जुगाड़ पर्यावरण के अनुकूल भी होते हैं। आज जब खेती में लागत बढ़ रही है, ऐसे देसी समाधान किसानों के लिए वरदान साबित हो रहे हैं।

  1. नर्सरी तैयार करना: बीज को पहले पानी में भिगोते थे। फिर गोबर की खाद मिली मिट्टी में बोया जाता। ये नर्सरी छोटे-से खेत में तैयार होती थी।
  2. रोपाई का मेला: 25-30 दिन बाद नर्सरी के पौधों को उखाड़कर बड़े खेत में रोपा जाता। ये काम पूरा गाँव मिलकर करता था। औरतें, मर्द, बच्चे – सब खेतों में उतर पड़ते।

रोपाई के वक्त गाँव में जैसे उत्सव सा माहौल होता। औरतें धान रोपते हुए गीत गातीं, और खेतों में हँसी-मजाक चलता रहता।

खेत तैयार करने का ढंग

खेत तैयार करना भी अपने आप में एक कला थी। बैलों से लकड़ी या लोहे का हल चलाया जाता। मिट्टी को दो-तीन बार जोतकर भुरभुरी और सपाट कर दी जाती।

  • गोबर की खाद: ये थी उस समय की सबसे बड़ी ताकत। खेतों में गोबर डालकर मिट्टी को ताकतवर बनाया जाता।
  • नीम-करंज का जादू: खेतों की मेड़ों पर नीम या करंज के पेड़ लगाए जाते, जो कीट-पतंगों को दूर रखते।

खेत में पानी भरकर 7-10 दिन तक छोड़ देना भी जरूरी था। इससे मिट्टी नरम होती और खरपतवार भी खत्म हो जाते।

पानी का इंतजाम

1692 में धान की खेती मानसून की मेहरबानी पर टिकी थी। बारिश अच्छी हुई तो फसल लहलहाई, वरना मुश्किल। फिर भी किसान पानी का जुगाड़ करने में माहिर थे:

  • तालाब: हर गाँव में तालाब होते थे, जिनसे खेतों में पानी लाया जाता।
  • नहरें: नदियों से निकाली गई छोटी-छोटी नहरें खेतों तक पानी पहुंचाती थीं।
  • वर्षा जल संग्रह: बारिश का पानी इकट्ठा करने के लिए छोटे-छोटे गड्ढे या ताल बनाए जाते।

खेतों में 2-5 सेमी गहरा पानी रखना जरूरी था, ताकि धान की जड़ें मजबूत हों।

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कीट और रोग से जंग

खेती में कीट और रोग किसानों के लिए सबसे बड़ी चुनौती होते हैं। धान की फसल हो या गेहूं की, इन पर कई तरह के कीट जैसे तना छेदक, भूंठी कीट, थ्रिप्स, और माहू हमला करते हैं। साथ ही, रोगों में झुलसा रोग, करपा, पत्ती धब्बा और ब्लास्ट जैसी समस्याएं फसल को भारी नुकसान पहुंचा सकती हैं। अगर समय पर इनकी पहचान न हो तो पूरी फसल बर्बाद हो सकती है।

इनसे बचाव के लिए किसानों को जैविक और रासायनिक दोनों तरह के उपाय अपनाने होते हैं। नीम के तेल का छिड़काव, ट्रैपिंग तकनीक, और फसल चक्र जैसे उपाय कीट नियंत्रण में मदद करते हैं। वहीं, प्रमाणित कीटनाशकों और रोगनाशकों का प्रयोग भी सावधानीपूर्वक करना चाहिए। सबसे जरूरी बात है कि किसान खेतों का नियमित निरीक्षण करें और शुरुआती लक्षण दिखते ही इलाज शुरू कर दें। सही जानकारी और सतर्कता से कीट और रोगों की इस जंग को जीता जा सकता है।

  • तना छेदक: ये कीड़ा पौधे को अंदर से खा जाता। इसके लिए नीम की पत्तियों का Optional: का धुआँ जलाकर खेत में छिड़कते थे।
  • पत्ती का धब्बा रोग: पत्तियों पर भूरे धब्बे पड़ते। इसके लिए खेत को अच्छे से सुखाकर और गोबर की खाद डालकर मिट्टी को मजबूत करते थे।
  • गंधी बग: ये दानों को खराब कर देता। इसके लिए तुलसी की पत्तियों या राख का इस्तेमाल होता।

किसान प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर खेती करते थे। नीम, तुलसी और राख जैसे देसी उपायों से कीट-पतंगों को भगाया जाता।

खाद और उर्वरक

उस समय रासायनिक खाद का नामोनिशान नहीं था। खेतों में सिर्फ प्राकृतिक खाद डाली जाती थी:

  • गोबर की खाद: गाय-भैंस के गोबर को सुखाकर खेत में डाला जाता।
  • हरी खाद: मूंग, उड़द जैसी फसलों को खेत में उगाकर मिट्टी में मिला दिया जाता।
  • राख: लकड़ी जलाने की राख भी मिट्टी को ताकत देती थी।

ये सब देसी नुस्खे मिट्टी को उपजाऊ रखते थे, और फसल भी रसायन-मुक्त होती थी।

कटाई और मड़ाई का तरीका

जब धान के पौधे पीले पड़ने लगते, तो समझ लिया जाता कि कटाई का वक्त आ गया।

  • कटाई: हंसिया या दरांती से पौधों को काटा जाता।
  • मड़ाई: कटे हुए पौधों को बैलों से कुचलवाकर दाने अलग किए जाते।
  • सुखाना: दानों को धूप में अच्छे से सुखाया जाता।

भंडारण का देसी अंदाज

धान को खराब होने से बचाने के लिए मिट्टी या बाँस के बने कोठार में रखा जाता। इन कोठारों में नीम की पत्तियाँ या राख डालकर कीटों से बचाव होता। कभी-कभी तुलसी की पत्तियाँ भी डाली जाती थीं, जो अनाज को सुरक्षित रखती थीं।

महिलाओं का योगदान

खेती में औरतों का रोल कम नहीं था। वो बीज छांटने से लेकर रोपाई, निराई और कटाई तक हर काम में बराबर की हिस्सेदार थीं। अनाज को साफ करना, सुखाना और कोठार में रखना भी उनका ही जिम्मा था। गाँव की औरतें खेतों में गीत गातीं, जिससे मेहनत भी हल्की लगती।

महिलाओं का समाज, परिवार और राष्ट्र के विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। चाहे वह घर की देखभाल हो या समाज सेवा, शिक्षा का क्षेत्र हो या राजनीति, महिलाएं हर मोर्चे पर अपनी योग्यता और क्षमता का प्रमाण देती आई हैं। इतिहास गवाह है कि रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाओं ने देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी, वहीं आज की महिलाएं अंतरिक्ष विज्ञान, आईएएस, खेल, चिकित्सा, तकनीक और व्यापार जैसे क्षेत्रों में नई ऊँचाइयाँ छू रही हैं।

आज की नारी सिर्फ घर की चौखट तक सीमित नहीं रही, बल्कि वह देश के निर्णय लेने वाले महत्वपूर्ण पदों तक पहुँची है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी महिलाएं स्वयं सहायता समूहों और खेती के ज़रिए आर्थिक सशक्तिकरण की मिसाल बन रही हैं। महिलाओं का योगदान सिर्फ संख्या में नहीं, बल्कि गुणवत्ता में भी बेजोड़ है, और यह दिखाता है कि बिना महिलाओं की भागीदारी के किसी भी समाज की कल्पना अधूरी है।

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आर्थिक हालात और मुश्किलें

आज के समय में देश और आम जनता दोनों ही आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। महंगाई लगातार बढ़ रही है, जिससे रोजमर्रा की चीजें जैसे आटा, दाल, सब्जी, पेट्रोल और गैस की कीमतें आम आदमी की पहुँच से बाहर होती जा रही हैं। आमदनी जहाँ रुकी हुई है, वहीं खर्चे लगातार बढ़ते जा रहे हैं। इससे मध्यमवर्गीय और गरीब वर्ग पर सबसे ज़्यादा असर पड़ा है। रोजगार की कमी और स्वरोजगार में गिरावट ने युवाओं की स्थिति को और गंभीर बना दिया है।
इसके अलावा, किसानों और मजदूरों को भी कई आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। खेती में लागत बढ़ गई है, लेकिन फसल के उचित दाम नहीं मिल रहे। सरकारी योजनाएँ ज़रूर हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर उनका लाभ सभी को नहीं मिल पाता। छोटे व्यवसायी भी मंदी और ऑनलाइन बाजार की मार से जूझ रहे हैं। कुल मिलाकर, आज के आर्थिक हालात आम जनजीवन को काफी प्रभावित कर रहे हैं और इसके समाधान के लिए ठोस और संवेदनशील नीति की ज़रूरत है।किसानों की जिंदगी उस वक्त आसान नहीं थी। जमींदार और मुगल शासक भारी लगान वसूलते। अगर सूखा, बाढ़ या टिड्डी का हमला हुआ, तो फसल बर्बाद हो जाती और किसान कर्ज में डूब जाता। फिर भी, मेहनत और हिम्मत से वो हर साल खेतों में उतरता था।

धान और संस्कृति

धान की खेती सिर्फ पेट भरने का जरिया नहीं थी, बल्कि ये हमारी संस्कृति का हिस्सा थी।

  • अखनी गीत: रोपाई के वक्त औरतें खेतों में गीत गातीं, जिससे माहौल खुशनुमा हो जाता।
  • धान्य लक्ष्मी पूजा: फसल को माँ अन्नपूर्णा का आशीर्वाद माना जाता था।
  • नवधान्य: नए धान को पूजा में रखकर भगवान को चढ़ाया जाता।

उस दौर की खेती के फायदे

  • हर घर को साल भर का अनाज मिलता।
  • बची-खुची फसल बेचकर थोड़ा पैसा आ जाता।
  • पौधों का भूसा मवेशियों के लिए चारा बनता।

1692 की धान की खेती और आज की खेती में जमीन-आसमान का फर्क है। तब सब कुछ प्रकृति पर निर्भर था, और आज मशीनें, हाइब्रिड बीज और केमिकल खाद ने खेल बदल दिया। फिर भी, उस वक्त की खेती में कुछ खास बात थी:

  • प्रकृति से तालमेल: कोई रसायन नहीं, सब जैविक।
  • मिट्टी की सेहत: गोबर और हरी खाद से मिट्टी हमेशा उपजाऊ रहती।
  • स्वाद: उस दौर के चावल की खुशबू और स्वाद आज भी याद की जाती है।

 निष्कर्ष:सन 1692 में धान की खेती – उस जमाने की बात

सन 1692 में धान की खेती मेहनत, धैर्य और प्रकृति के साथ तालमेल की मिसाल थी। भले ही आज हम मशीनों और नई तकनीकों के सहारे ज्यादा पैदावार ले रहे हैं, लेकिन उस दौर की जैविक खेती के सबक आज भी काम के हैं। अगर हम पुराने और नए तरीकों को मिलाकर चलें, तो खेती न सिर्फ फायदेमंद होगी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी टिकाऊ रहेगी। खेती तो हमारे देश की धड़कन है, इसे संभालकर रखना हम सबकी जिम्मेदारी है। 

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