नमस्कार किसान भाई, जब भी आप पहाड़ी इलाकों में घूमने जाते हैं — जैसे उत्तराखंड, सिक्किम या हिमाचल — तो आपने जरूर वो सुंदर-सुंदर सीढ़ीनुमा खेत देखे होंगे। दूर से देखने में ये खेत किसी हरे गलीचे की तरह लगते हैं जो पहाड़ों पर फैले होते हैं। इन्हीं को हम “सीढ़ीदार खेती” या “सोपानी खेती” कहते हैं।
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1. सीढ़ीदार (सोपानी) खेती क्या होती है?
सीढ़ीदार खेती, जिसे सोपानी खेती भी कहा जाता है, एक पारंपरिक कृषि तकनीक है जिसका इस्तेमाल ढलान वाले पहाड़ी क्षेत्रों में खेती के लिए किया जाता है। इसमें पहाड़ों की ढलानों को काटकर सीढ़ियों जैसे समतल मैदान बनाए जाते हैं, ताकि बारिश का पानी बहकर न जाए और मिट्टी का कटाव रोका जा सके। ये सीढ़ियाँ एक के ऊपर एक होती हैं, जिससे पानी हर स्तर पर कुछ समय तक ठहरता है और फसल को सिंचाई में मदद मिलती है।
यह तरीका खासतौर पर उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और उत्तर-पूर्वी राज्यों जैसे मणिपुर व नागालैंड में काफी प्रचलित है। इसमें मक्का, धान, आलू और सब्ज़ियाँ जैसी फसलें उगाई जाती हैं। इस खेती की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह जल-संरक्षण और भूमि-संरक्षण दोनों में मदद करती है। यही वजह है कि यह आज भी पहाड़ी इलाकों के किसानों की जीवनशैली का अहम हिस्सा है।
- इसका मकसद ये है कि पानी की बर्बादी न हो और मिट्टी बहकर नीचे न चली जाए।
- खासकर बारिश वाले पहाड़ी इलाकों में ये तरीका खेती को बचाता भी है और आसान भी बनाता है।
इसका इस्तेमाल हजारों सालों से भारत, चीन, पेरू जैसे देशों में होता आ रहा है।
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2. सीढ़ीदार खेती मुख्यतः भारत के किस राज्य में की जाती है?
सीढ़ीदार खेती (Terrace Farming) मुख्यतः भारत के पर्वतीय राज्यों में की जाती है, लेकिन उत्तराखंड इस खेती के लिए सबसे प्रसिद्ध राज्य माना जाता है। यहां की पहाड़ी ज़मीनें ढलानदार होती हैं, जिस पर सीधे खेती करना मुश्किल होता है। इसलिए किसान ज़मीन को सीढ़ियों के आकार में काटकर खेत बनाते हैं, जिससे मिट्टी का कटाव कम होता है और पानी रुके रहने से फसल को फायदा मिलता है। यह तरीका खासतौर पर धान, गेंहू और जौ जैसी फसलों के लिए अपनाया जाता है।
उत्तराखंड के अलावा हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड जैसे पहाड़ी राज्य भी सीढ़ीदार खेती का उपयोग करते हैं। इस खेती की खास बात ये है कि यह न सिर्फ पर्यावरण के अनुकूल होती है, बल्कि जल-संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता को भी बनाए रखती है। पहाड़ी इलाकों में जहां खेती करना चुनौतीपूर्ण होता है, वहां यह तरीका किसानों के लिए एक कारगर समाधान बनकर उभरा है।
अब सीधा सवाल – “निम्नलिखित में से किस प्रांत में सीढ़ीदार खेती की जाती है?”
तो इसका जवाब है:
उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश और कुछ हद तक जम्मू-कश्मीर।
चलिए अब इसे एक टेबल में भी देख लेते हैं:
राज्य का नाम | प्रमुख ज़िले जहाँ सीढ़ीदार खेती होती है | प्रमुख फसलें |
उत्तराखंड | चमोली, उत्तरकाशी, बागेश्वर | धान, गेहूं, मंडुआ, झंगोरा |
हिमाचल प्रदेश | कांगड़ा, शिमला, मंडी | मक्का, आलू, गेंहू |
सिक्किम | पूर्वी और पश्चिम सिक्किम | अदरक, धान, सब्जियाँ |
नगालैंड | कोहिमा, मोन, तुएनसांग | धान, मक्का, बाजरा |
अरुणाचल प्रदेश | पश्चिम सियांग, लोअर सुबानसिरी | धान, दालें, हर्बल फसलें |
जम्मू-कश्मीर | पुंछ, राजौरी, डोडा | गेंहू, सेब, सब्जियाँ |
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3. सीढ़ीदार खेती की ज़रूरत क्यों पड़ी?
पहाड़ों और ढलान वाली ज़मीनों पर खेती करना हमेशा से चुनौतीपूर्ण रहा है। ऐसी जगहों पर बारिश का पानी तेज़ी से बहकर मिट्टी को बहा ले जाता है, जिससे भूमि की उर्वरता घटती है और फसलें ठीक से नहीं उग पातीं। इसी समस्या का समाधान निकालने के लिए “सीढ़ीदार खेती” की शुरुआत हुई। इसमें ढलानों को काटकर उन्हें सीढ़ीनुमा आकर में बनाया जाता है, जिससे पानी धीरे-धीरे नीचे जाता है और मिट्टी का कटाव रुकता है।
सीढ़ीदार खेती से ना सिर्फ मिट्टी की सुरक्षा होती है, बल्कि पानी भी खेतों में टिकता है, जिससे सिंचाई की ज़रूरत कम होती है। यह तकनीक पहाड़ी इलाकों में खेती को संभव बनाती है और वहां के लोगों को आजीविका का साधन देती है। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और पूर्वोत्तर भारत में यह खेती प्राचीन काल से की जा रही है, जो आज भी वहां की पारंपरिक कृषि प्रणाली का अहम हिस्सा है।
- खेती करना मुश्किल हो जाता है।
- पानी का सही इस्तेमाल नहीं हो पाता।
- पैदावार कम हो जाती है।
सीढ़ीदार खेती इन सभी समस्याओं का समाधान है:
- इससे खेत समतल बनते हैं।
- पानी हर परत पर रुकता है और फसल को फायदा मिलता है।
- मिट्टी का कटाव भी रुकता है।
4. सीढ़ीदार खेती की विशेषताएं
अब बात करते हैं इसकी खासियतों की:
(1) पानी की बर्बादी नहीं होती
पानी हर परत पर थोड़ा-थोड़ा रुकता है, जिससे पूरा खेत सिंचित रहता है।
(2) मिट्टी का कटाव रुकता है
भारी बारिश में भी मिट्टी नहीं बहती, जो फसल के लिए बहुत जरूरी है।
(3) अधिक पैदावार
मिट्टी और पानी की गुणवत्ता बने रहने से उत्पादन बेहतर होता है।
5. किन फसलों के लिए सीढ़ीदार खेती ज्यादा फायदेमंद है?
हर फसल के लिए ये खेती नहीं होती, लेकिन कुछ फसलें हैं जिनमें यह तरीका बहुत फायदेमंद है:
फसल का नाम | सीढ़ीदार खेती में उपयोगिता |
धान | सबसे आम, पानी रुके रहने से लाभदायक |
मंडुआ (रागी) | कम पानी में भी उपज |
मक्का | हल्की मिट्टी में बढ़िया उत्पादन |
आलू, अदरक | पहाड़ों की जलवायु में अनुकूल |
सब्जियाँ (गोभी, टमाटर आदि) | छोटे प्लेटफार्म पर भी लगाई जा सकती हैं |
6. सीढ़ीदार खेती के फायदे
अब जानते हैं इसके प्रमुख फायदे:
- जल संरक्षण: पानी की बर्बादी नहीं होती।
- मृदा संरक्षण: मिट्टी नहीं कटती, उपजाऊ बनी रहती है।
- जैविक खेती के लिए उपयुक्त: रासायनिक प्रयोग कम होता है।
- पर्यावरण अनुकूल: पेड़-पौधे, नमी और प्राकृतिक जीवन को नुकसान नहीं होता।
- खेती की परंपरा बची रहती है: खासकर पहाड़ी समुदायों की सांस्कृतिक पहचान से जुड़ी है।
7. इसकी कुछ चुनौतियाँ भी हैं
हालांकि यह तकनीक या तरीका काफी फायदेमंद साबित हो रहा है, लेकिन इसके साथ कुछ चुनौतियाँ भी सामने आ रही हैं। सबसे पहली चुनौती है – जागरूकता की कमी। बहुत से किसान या उपयोगकर्ता अब भी पारंपरिक तरीकों में ही भरोसा रखते हैं और नई तकनीकों को अपनाने में हिचकिचाते हैं। इसके अलावा सही प्रशिक्षण और मार्गदर्शन की कमी के कारण वे इसका पूरा लाभ नहीं उठा पाते।
दूसरी बड़ी चुनौती है – संसाधनों की उपलब्धता। चाहे वो स्मार्टफोन हो, इंटरनेट कनेक्टिविटी या फिर जरूरी उपकरण – हर किसान के पास इन चीज़ों की समान पहुँच नहीं होती। ग्रामीण क्षेत्रों में नेटवर्क की समस्याएं, तकनीकी सहायता की कमी और कभी-कभी सरकार या संस्था की ओर से सहयोग में देरी भी रुकावट बन जाती है। ऐसे में ज़रूरी है कि हम इन चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए समाधान भी साथ में खोजें।
- श्रम अधिक लगता है – हर सीढ़ी बनाना मेहनत का काम है।
- मशीनों का उपयोग मुश्किल – ट्रैक्टर आदि चलाना आसान नहीं होता।
- भूस्खलन का खतरा – अगर सीढ़ियां मजबूत न हों तो बारिश में नुकसान हो सकता है।
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8. सरकार क्या मदद करती है?
भारत सरकार और राज्य सरकारें मिलकर सीढ़ीदार खेती को बढ़ावा देने के लिए कई स्कीमें चला रही हैं:
- नेशनल मिशन ऑन सस्टेनेबल एग्रीकल्चर (NMSA) – जिसमें जल और मिट्टी संरक्षण पर जोर है।
- मनरेगा के तहत मजदूरी – कई जगह ग्रामीण मजदूरों से सीढ़ी बनवाने में मदद मिलती है।
- जैविक खेती को बढ़ावा – पहाड़ी इलाकों को ऑर्गेनिक जोन घोषित किया गया है।
9. भविष्य में सीढ़ीदार खेती का क्या रोल रहेगा?
भविष्य में सीढ़ीदार खेती का रोल और भी ज़्यादा अहम हो सकता है, खासकर पहाड़ी और ढलानदार इलाकों में जहां समतल खेती मुमकिन नहीं होती। जलवायु परिवर्तन की वजह से बारिश का पैटर्न बदल रहा है और मिट्टी का कटाव बढ़ रहा है। ऐसे में सीढ़ीदार खेती न केवल मिट्टी को कटने से बचाती है, बल्कि पानी को भी संरक्षित करने में मदद करती है। इससे पैदावार स्थिर रहती है और पर्यावरण को भी नुकसान नहीं होता।
साथ ही, भविष्य में टिकाऊ खेती (Sustainable Agriculture) की मांग बढ़ेगी, और सीढ़ीदार खेती उसी दिशा में एक मजबूत कदम है। सरकारें और किसान मिलकर अगर इसमें आधुनिक तकनीक और जैविक खेती को जोड़ दें, तो इससे न सिर्फ स्थानीय उत्पादन बढ़ेगा बल्कि युवा किसानों के लिए भी यह एक आकर्षक विकल्प बन सकता है। इसलिए आने वाले समय में सीढ़ीदार खेती एक पर्यावरण-अनुकूल और आजीविका-सुरक्षित खेती के मॉडल के रूप में उभर सकती है।
- यह पर्यावरण के अनुकूल है।
- पहाड़ी लोगों के जीवन और खेती को बनाए रखने में मददगार है।
- और टूरिज्म के लिहाज से भी ये खेत आकर्षण का केंद्र हैं।

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10. टॉप 10 रोचक फैक्ट्स – सीढ़ीदार खेती के बारे में
- भारत में 40% पहाड़ी क्षेत्र की खेती सीढ़ीदार पद्धति पर निर्भर है।
- उत्तराखंड के गाँवों में इसे “खेतों की सीढ़ी” कहा जाता है।
- चीन की ‘लॉन्गजी राइस टेरेस’ दुनिया की सबसे बड़ी सीढ़ीदार खेती है।
- भारत के सिक्किम को 100% ऑर्गेनिक स्टेट घोषित किया गया है, और वहां सीढ़ीदार खेती होती है।
- नेपाल और भूटान भी इसी तकनीक से खेती करते हैं।
- पर्यावरणविद इस तकनीक को “Nature Friendly Farming” मानते हैं।
- भारत में पर्वतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR-VPKAS) इस पर रिसर्च करती है।
- कई जगह सीढ़ीदार खेतों में मछली पालन भी किया जा रहा है।
- खेतों की डिजाइनिंग करने के लिए अब GIS Mapping और ड्रोन टेक्नोलॉजी का उपयोग हो रहा है।
- पहाड़ी इलाकों में अब “Eco-Tourism Farming” के रूप में भी इसे बढ़ावा मिल रहा है।
निष्कर्ष: निम्नलिखित में से किस प्रांत में सीढ़ीदार सोपानी खेती की जाती है – एक आसान और पूरी जानकारी
सीढ़ीदार खेती सिर्फ एक खेती की तकनीक नहीं है, बल्कि पहाड़ी जीवनशैली का हिस्सा है। ये न सिर्फ पर्यावरण-संरक्षण करती है बल्कि स्थानीय समुदायों को आत्मनिर्भर बनाती है।
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